जैन धर्म के 24 तीर्थंकर

जैन धर्म के धर्मोपदेशक तीर्थंकर या जिन कहलाते हैं | जैन शब्द की उत्पत्ति जिन शब्द से हुई है | जिन शब्द संस्कृत की जि धातु से बना है, जि अर्थ है – जीतना , इसप्रकार जिन का अर्थ हुआ विजेता या जीतने वाला और जैन धर्म का अर्थ हुआ विजेताओं का धर्म | जैन धर्म के अनुसार जिन वें हैं जिन्होंने अपने निम्नकोटि के स्वभाव या मनोवेगों पर विजय प्राप्त करके स्वयं को वश में कर लिया हो | दूसरे शब्दों में जिन वें हैं जिन्होंने समस्त मानवीय वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है | जिन के अनुयायी जैन कहलाते है | तीर्थंकर का अर्थ है मोक्ष मार्ग के संस्थापक | जैन परम्परा में चौबीस तीर्थंकरों की मान्यता है, जिनमे केवल तेइसवें और चौबीसवें तीर्थंकर की ही ऐतिहासिकता सिद्ध हो पाती है | जैन धर्म जरुर पढ़ें, टच करें- ➽  ब्राह्मण विरोधी राजनीति के प्रतीक करुणानिधि से जुड़े 15 महत्वपूर्ण और रोचक तथ्य जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों के नाम जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार है - 1. ऋषभदेव (आदिनाथ), 2. अजितनाथ, 3. सम्भवनाथ, 4. अभिनन्दननाथ, 5. सुमतिनाथ, 6. पद्मप्रभनाथ, 7. सुपार्श्वनाथ, 8. च...

जैन दर्शन का अनेकान्तवाद

अनेकान्तवाद (Anekantavada) जैन दर्शन (Jaina Philosophy) की तत्वमीमांसा से जुड़ा हुआ है | जैन तत्वमीमांसा वास्तववादी सापेक्षतावादी बहुतत्ववाद (Realistic Relativistic Pluralism) है | इसे अनेकान्तवाद कहा जाता है | अनेकान्तवाद शब्द अनेक+अन्त+वाद के मिलने से बना है | यहाँ ‘अन्त’ का अर्थ वस्तु और धर्म दोनों से है | जैन दर्शन के अनेकान्तवाद के अनुसार इस लोक में अनेक वस्तुयें है और इनमें से प्रत्येक वस्तु के अनेक धर्म है | यहाँ धर्मशब्द का अर्थ गुण, लक्षण या विशेषता है | जैन धर्म के अनुसार सारा संसार चेतन जीव (आत्मा) और अचेतन पुद्गल से भरा पड़ा है, दोनों अनेक है और दोनों ही परस्पर भिन्न, स्वतन्त्र व नित्य तत्व है | उल्लेखनीय है कि जिस सत्ता को अन्य दर्शनों ने आत्माकहा है उसी सत्ता को जैन दर्शन में जीवकहा गया है |

anekantavada of jaina philosophy
Anekantavada of Jaina Philosophy
  
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जैन धर्म के 24 तीर्थंकर  

जैन धर्म में भौतिक जड़ पदार्थ को पुद्गलकहा गया है | यह ध्यान देना आवश्यक है की जैनदर्शन एकमात्र दर्शन है जो भौतिक जड़ तत्व के लिए ‘पुद्गल’ शब्द का प्रयोग करता है | इसके विपरीत सांख्य दर्शन जड़ तत्व के लिए ‘प्रकृति’ शब्द का प्रयोग करता है, न्याय दर्शन जड़ तत्व के लिए ‘परमाणु’ शब्द का प्रयोग करता है वही शंकराचार्य ने अपने दर्शन में जड़ तत्व के लिए ‘माया’ शब्द और रामानुजाचार्य ने अपने दर्शन में ‘अचित्’ शब्द का प्रयोग किया है | यह भी ध्यान देना आवश्यक है कि जहाँ जैन धर्म में भौतिक जड़ पदार्थ को पुद्गलकहा गया है | वही बौद्धदर्शन में चेतन जीव को पुद्गलकहा गया है |

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पुद्गल अनेक है | जैन मतानुसार जिसका संयोजन और विभाजन हो सके वह पुद्गल है | पुद्गल शब्द की व्युत्पत्ति दी गयी है – “पूरयन्ति गलन्ति च” अर्थात् पुद्गल वे है जो पूर्ण होते रहे और गलते रहे, जो बनते बिगड़ते रहे’ | पुद्गल अणु (Atom) के रूप में है और इन अणुओं के मिलने से स्कन्ध या संघात (Compound) का रूप लेता है | अणु पूर्ण है इसका विभाजन नही हो सकता है, यह पुद्गल के विभाजन की सूक्ष्मतम व अन्तिम अवस्था है | दो या दो से अधिक अणुओं के मिलने से स्कन्ध बनता है और पुनः स्कन्धों का विभाजन होने से अणु प्राप्त होता है |



इस प्रकार हम पुनः पुद्गल की परिभाषा को लेते है कि "पुद्गल वे है जो पूर्ण है अर्थात् अणुहै और गलते रहे, जो बनते बिगड़ते रहे अर्थात् स्कन्ध" | अर्थात् पुद्गल के दो रूप है, एक अणु और दूसरा स्कन्ध | इस प्रकार पुद्गल या तो अणु के रूप में रहता है या स्कन्धों के रूप में रहता है | पुद्गल के अणुओं से अनन्त प्रकार की वस्तुयें बनी है, जिसमे प्राणी के शरीर, ज्ञानेन्द्रियाँ आदि भी शामिल हैं |

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जीव अनेक है | जीव चेतन द्रव्य है | जीव (आत्मा) शरीर, मन, इन्द्रिय, आदि से भिन्न है | यह सारा संसार अनन्त जीवों से भरा हुआ है | सभी अणुओं के अन्दर जीवों का निवास होता है | केवल प्राणीयों (मानव, देव, पशु) व पेड़-पोधों में ही नही, बल्कि पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, धातु, पत्थर जैसे जड़ पदार्थों में भी जीव रहते है | यह नित्य है, पूर्ण है और इसकी संख्या अनन्त है | यह कर्ता, भोक्ता और ज्ञाता है अर्थात् यह संसार के कर्मों में भाग लेता है, यह सुख-दुःख की अनुभूति ग्रहण करता है व अपने कर्मों के अनुसार सुख-दुःख भी भोगता है और भिन्न-भिन्न विषयों का ज्ञान भी यह प्राप्त करता है | जीवों में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त शक्ति, और अनन्त सुख है |



इसप्रकार सारा संसार चेतन जीव व अचेतन पुद्गल से परिपूर्ण है और ये दोनों ही परस्पर भिन्न, स्वतन्त्र, नित्य और अनेक हैं |  


प्रत्येक वस्तु के दो पक्ष होते है नित्यता और अनित्यता | नित्यता के कारण प्रत्येक वस्तु नित्य है और अनित्यता के कारण उत्पत्ति विनाशशील है | जैन दर्शन के अनुसार इस संसार में अनेक वस्तुयें है और प्रत्येक वस्तु के अनेक गुण होते है | इनमे से कुछ गुण नित्य या स्थायी है और कुछ गुण अनित्य या अस्थायी है | जो गुण वस्तुओं में निरन्तर विद्यमान रहते है उन्हें नित्य या आवश्यक गुण कहते है और जो निरन्तर परिवर्तित होते रहते है उन्हें परिवर्तनशील या अनावश्यक गुण कहते है |

नित्य गुण वस्तु के स्वरुप को निर्धारित करते है इसलिए इन्हे स्वरुप गुण भी कहते है इसके आलावा परिवर्तनशील गुण के बिना भी वस्तु की कल्पना की जा सकती है इसलिए इन्हे आगंतुक गुण भी कहते है | नित्य या आवश्यक गुण को वस्तु से अलग नही किया जा सकता, इनके बिना वस्तु का अस्तित्व ही सम्भव नही है | चेतना मनुष्य का आवश्यक गुण है |
  
परिवर्तनशील या अनावश्यक गुण वस्तु में निरन्तर विद्यमान नही रहते है और ये वस्तु में आते-जाते रहते है, उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं | सुख, दुःख, कल्पना, इच्छाएँ आदि अनावश्यक गुण है |

जैनमत आवश्यक गुण को गुणऔर अनावश्यक गुण को पर्यायकहता है | इन गुणों का कुछ न कुछ आधार होता है जो द्रव्य कहलाता है | इस प्रकार जैनमत आवश्यक और अनावश्यक गुणों के आधार को द्रव्य कहता है | दूसरे शब्दों में द्रव्य वह है जिसके गुण और पर्याय हो |



इसप्रकार जैनमत स्वयं को अनेकान्तवादी कहता है क्योकि वह एकता व अनेकता और नित्यता व अनित्यता का समन्वय स्वीकार करता है |



जैन दर्शन वस्तु के अनन्त गुण और पर्याय स्वीकार करता है इसीलिए जैन अपने मत को ‘अनेकान्तवाद’ कहते है | इसके विपरीत जैन दर्शन बौद्ध दर्शन और अद्वैत वेदान्त दर्शन को एकान्तवाद का समर्थक मानता है | जब कोई दर्शन वस्तु के एक अर्थ को उसका सम्पूर्ण स्वरुप मान लेता है तब वह दर्शन एकान्तवाद का समर्थक हो जाता है दूसरे शब्दों में किसी वस्तु के एक अंश को ही उसका सम्पूर्ण स्वरुप मान लेना ही एकान्तवाद है | यह असत्य और भ्रामक है |

प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन अनित्यता को एकमात्र सत्य मानता है और नित्यता को असत्य मानता है | दूसरी ओर अद्वैत वेदान्त दर्शन ब्रह्म की नित्यता को ही एकमात्र सत्य मानता है और अनित्यता को असत्य मानता है | जैन दर्शन दोनों पर आरोप लगाता है कि बौद्ध दर्शन ‘क्षणिक एकान्तवाद’ और अद्वैत वेदान्त दर्शन ‘ब्रह्म एकान्तवाद’ का दोष लिए हुए हैं |      



अनेकान्तवाद और स्याद्वाद (सप्त भंगी नय) में सम्बन्ध या अन्तर


जैन दर्शन के अनुसार इस संसार में अनेक वस्तुयें है और प्रत्येक वस्तु के अनेक गुण होते है | एक सामान्य मनुष्य के लिए सम्पूर्ण वस्तुओं को जानना अथवा एक ही वस्तु के सारे गुणों की जानकारी प्राप्त करना सम्भव नही है | एक वस्तु के सम्पूर्ण गुणों की जानकारी प्राप्त कर लेना सर्वज्ञ होना है | जो व्यक्ति एक वस्तु के सम्पूर्ण गुणों को जान लेता है तब वह व्यक्ति सम्पूर्ण वस्तुओं के सम्पूर्ण गुणों को जान लेता है | इसलिए कहा गया है कि “एको भाव: सर्वथा येन दृष्ट:, सर्वे भावा: सर्वथा तेन दृष्टा: | इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि एक सामान्य मनुष्य का सम्पूर्ण ज्ञान एकांगी, आंशिक, अपूर्ण, सापेक्ष व सीमित है | इस तर्कशास्त्रीय सिद्धान्त को जैन दर्शन 'स्याद्वाद' (syadvada or the theory of relativity of knowledge) या 'सप्त भंगी नय' (sapta bhangi naya) का नाम देता है | 

भूलवश अनेकान्तवाद और स्याद्वाद को एक ही सिद्धान्त मान लिया जाता है | दोनों को एक दूसरे का पर्याय मानना नितान्त भ्रमात्मक है | अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में मुख्य अन्तर यह है कि अनेकान्तवाद जैन दर्शन के तत्वमीमांसीय सिद्धान्त का नाम है जबकि स्याद्वाद जैन दर्शन के ज्ञानमीमांसीय सिद्धान्त का नाम है | वास्तव में अनेकान्तवाद और स्याद्वाद एक ही सिक्के के दो पहलूओं के सामान है | जैन दर्शन के ये दोनों वाद एक न होकर एक ही सिद्धान्त के दो रूप है और यह सिद्धान्त बहुतत्ववादी यथार्थ सापेक्षवाद (Realistic Relativistic Pluralism) है |

जैन दर्शन सत्ता की दृष्टि से जिसे अनेकान्तवाद का नाम देता है उसे ही ज्ञान की दृष्टि से स्याद्वाद कह कर पुकारता है | इस प्रकार अनेकान्तवाद और स्याद्वाद एक दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है लेकिन दोनों में पर्याप्त अन्तर भी हैं |

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