जैन धर्म के 24 तीर्थंकर

जैन धर्म के धर्मोपदेशक तीर्थंकर या जिन कहलाते हैं | जैन शब्द की उत्पत्ति जिन शब्द से हुई है | जिन शब्द संस्कृत की जि धातु से बना है, जि अर्थ है – जीतना , इसप्रकार जिन का अर्थ हुआ विजेता या जीतने वाला और जैन धर्म का अर्थ हुआ विजेताओं का धर्म | जैन धर्म के अनुसार जिन वें हैं जिन्होंने अपने निम्नकोटि के स्वभाव या मनोवेगों पर विजय प्राप्त करके स्वयं को वश में कर लिया हो | दूसरे शब्दों में जिन वें हैं जिन्होंने समस्त मानवीय वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है | जिन के अनुयायी जैन कहलाते है | तीर्थंकर का अर्थ है मोक्ष मार्ग के संस्थापक | जैन परम्परा में चौबीस तीर्थंकरों की मान्यता है, जिनमे केवल तेइसवें और चौबीसवें तीर्थंकर की ही ऐतिहासिकता सिद्ध हो पाती है | जैन धर्म जरुर पढ़ें, टच करें- ➽  ब्राह्मण विरोधी राजनीति के प्रतीक करुणानिधि से जुड़े 15 महत्वपूर्ण और रोचक तथ्य जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों के नाम जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार है - 1. ऋषभदेव (आदिनाथ), 2. अजितनाथ, 3. सम्भवनाथ, 4. अभिनन्दननाथ, 5. सुमतिनाथ, 6. पद्मप्रभनाथ, 7. सुपार्श्वनाथ, 8. च...

ऋग्वैदिक काल की राजनीतिक दशा

प्रारम्भिक वैदिक काल या ऋग्वैदिक काल की राजनीतिक दशा या राजव्यवस्था कबायली (कबायली-राजव्यवस्था) थी | चूँकि ऋग्वैदिक काल में आर्यों के लिए युद्ध का अत्यधिक महत्व था और कबीले का प्रधान ही युद्धों का कुशलतापूर्वक नेतृत्व करता था | अतः इस काल में आर्यों का सम्पूर्ण प्रशासन कबीले के प्रधान के हाथों में होता था | कबीले का प्रधान राजन (राजा) कहलाता था | युद्ध आदि अधिक होने के कारण राजा के पद का विशेष महत्व होता था |  

ऋग्वैदिक राज्यों में कुछ राज्यों का स्वरुप राजतंत्रात्मक था तो कुछ का गणतंत्रात्मक | विभिन्न राजाओं और गणराज्य-प्रमुखों के मध्य अपने-अपने प्रभुत्व के लिए युद्ध और संघर्ष चलता रहता था | यद्यपि कही-कही राजा के चुने जाने का उल्लेख मिलता है और कुछ ऐसे गणराज्य-प्रमुखों की भी जानकारी मिलती है जिन्हें जनसभा द्वारा लोकतन्त्रात्मक पद्धति से चुना गया था | लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल में राजा का पद स्पष्ट रूप आनुवांशिक हो चुका था |

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यद्यपि राजा का पद आनुवांशिक हो चुका था तथापि उसके पास असीमित अधिकार नही थे | राजा को विशेष मुद्दों पर कबायली संस्थाओं (सभा, समिति आदि) से सलाह लेनी पड़ती थी |

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ऋग्वैदिक राजा के कंधों पर महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ होती थी | वह मुख्यतया सैनिक नेता होता था | वह युद्ध का कुशल नेतत्व करता था | अपने जन (कबीले) की रक्षा करता था इसलिए वह गोप्ता जनस्य (जन का रक्षक रक्षक) भी कहलाता था | वह कबीले के मवेशियों का प्रमुख रक्षक होता था | राजा को उसकी सेवाओं के बदले उसकी प्रजा द्वारा स्वेच्छा से बलि (भेंट या राजस्व) प्राप्त होती थी | उसे बलि विजित जनों से भी प्राप्त होती थी |

इस समय राजा को किसी भी दशा में ईश्वर का प्रतिनिधि नही माना जाता था और न ही वह कभी किसी प्रकार की दैवीय शक्ति का दावा करता था | उसके कोई भी धार्मिक कार्य नही थे | लेकिन इसके बावजूद वह अपने कबीले की रक्षा और कल्याण के लिए यज्ञ करने तथा उसे सम्पन्न करने में पुरोहितों को सहयोग करता था | 

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सुचारू ढंग से प्रशासन हेतु राजा की सहायता के लिए कुछ अधिकारी होते थे | सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी पुरोहित होता था | यह राजा के बाद सबसे शक्तिशाली होता था | पुरोहित पौरोहित्य-कार्य के साथ-साथ मंत्री के कर्तव्यों का भी निर्वाह करता था | वह राजा को उचित-अनुचित का ज्ञान कराता था, उसके कर्तव्यों से उसे अवगत कराता था, उसका गुणगान करता था, राजा के युद्ध-विजय व भौतिक-सुख के लिए धार्मिक अनुष्ठानों का विधिवत् रूप से संचालन करता था | इसके प्रतिफल में पुरोहित राजा से गायों और दासियों के रूप में प्रचुर दान-दक्षिणा प्राप्त करते थे |

पुरोहित के बाद सेनानी का स्थान था, जो सेना का प्रधान होता था | सेनानी अस्त्र-शस्त्र चलाने निपुण होता था | ग्रामणी और व्राजपति का भी उल्लेख मिलता है | व्राजपति चारागाह का अधिकारी होता था तथा लड़ाकू दलों के प्रधानों को ग्रामणी कहा जाता था | ग्रामिणी सम्भवतः घरेलू (असैनिक) और सैनिक दोनों कार्यों के लिए ग्राम का प्रधान होता था |  

प्रारम्भ में ग्रामणी एक छोटे कबायली लड़ाकू दल का प्रधान होता था | समय बीतने के साथ जब ऐसे छोटे दल स्थिरवासी हो गये तब ये ग्रामणी पूरे गाँव का प्रधान बन गया | कालान्तर में ग्रामिणी, व्राजपति के भी दायित्यों का निर्वाह करने लगा | 

गुप्तचरों का भी उल्लेख मिलता है जो स्पश कहलाते थे | गुप्तचरों की नियुक्ति समाज-विरोधी हरकतों को रोकने के लिए की जाती थी | गुप्तचर (स्पश) लोगो के आचरण पर नजर रखते थे और राजा को इससे सम्बन्धित बातों से अवगत कराते थे | सम्भवतः और भी अनेक राज-कर्मचारी इस समय रहे होंगे, जिनका वैदिक साहित्य में उल्लेख नही किया गया हो | 

राजा के पास अपनी कोई स्थाई या नियमित सेना नही होती थी | संघर्ष या युद्ध के समय राजा अपने कबीले से एक नागरिक सेना का गठन कर लेता था | इस नागरिक सेना का संचालन व्रात, गण, ग्राम सर्ध नामक कबायली टोलियाँ (समूह) करती थी, लेकिन इनका अर्थ पूर्णतया स्पष्ट नही है |

युद्ध में पैदल सेना के साथ-साथ रथ और घोड़ो का भी उल्लेख मिलता है | अभी तक युद्ध में हाथियों के उपयोग का प्रचलन नही हुआ था | वीर योद्धा कवच (वर्मन्) भी पहनते थे | युद्ध में धनुष-बाण, तलवार, भाले, कुल्हाड़ी आदि के प्रयोग का उल्लेख मिलता है | दुर्गो (पुरों) को तोड़ने वाले एक विशेष यंत्र पुर-चरिष्णु का भी उल्लेख मिलता है |

ऋग्वैदिक कालीन आर्य स्थायी निवासी नही थे | इस काल में आर्य आवश्यकतानुसार अपना निवास बदलते रहते थे | इसलिए ऋग्वैदिक काल में हमे नागरिक या प्रादेशिक प्रशासन का अस्तित्व नही मिलता है | 

ऋग्वैदिक कालीन प्रशासन में कुछ कबायली संस्थाओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती थी | ऋग्वेद में हमे सभा, समिति, विदथ और गण का उल्लेख मिलता है | इनमे सभा और समिति अत्यधिक महत्वपूर्ण संस्थाएँ थी | ऐसा प्रतीत होता है कि सभा और समिति शासन के प्रमुख अंग थे | ये दोनों संस्थाएं इतनी महत्वपूर्ण थी कि इनके समर्थन पर ही राजा का भविष्य निर्भर करता था | कालान्तर में उत्तर वैदिक कालीन अथर्ववेद में सभा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है |

समिति कबीले की आम सभा होती थी, इसमे कबीले के समस्त लोग सम्मिलित होते थे और यह अपने राजा को चुनती थी | समिति राजा पर नियंत्रण भी रखती थी और इसके पास राजा को पदच्युत करने का भी अधिकार था | समिति का अध्यक्ष ईशान कहलाता था | केन्द्रीय शासन और सेना पर समिति का बहुत अधिक प्रभाव था | विद्वानों के अनुसार यह मुख्य रूप नीति विषयक निर्णय लेती थी | ऋग्वेद में समिति की चर्चा 9 बार मिलती है |

सभा वृद्ध (श्रेष्ठ) और कुलीन लोगों की संस्था थी, जिन्हें सुजान कहा जाता था | सभा कबीले के चुनिन्दा सदस्यों की संस्था थी जबकि समिति सम्पूर्ण कबीले की संस्था थी | इसप्रकार यह समिति की अपेक्षा छोटी होती थी | सभा के अध्यक्ष को सभापति और सदस्यों को सभासद कहा जाता था | वेदों में सभा के सदस्यों को पितरः (पिता) भी कहा गया है | सभा में भागीदारी करने वाले सभेय कहलाते थे | सभा का प्रमुख कार्य सार्वजनिक बातों पर फैसला करना और न्याय प्रदान करना था, जिस व्यक्ति को सभा के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता था उसे सभाचर कहा जाता था | स्त्रियों को सभा में शामिल नही किया जाता था | उत्तरवैदिक कालीन ग्रन्थ अथर्ववेद में एक स्थान पर सभा को नरिष्टा कहा गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ अनुलंघनीय होता है | इससे प्रतीत होता है कि सभा द्वारा लिया गया निर्णय अनुलंघनीय माना जाता था | ऋग्वेद में सभा की चर्चा 8 बार हुई है |

विदथ आर्यों की सबसे प्राचीन संस्था थी | विदथ के विषय में विद्वानों के बीच पर्याप्त मतभेद है | रामशरण शर्मा इसे आर्यों की प्राचीनतम जनसभा मानते थे | वे बताते है कि विदथ में स्त्री और पुरुष दोनों भाग लेते थे और यह सभी प्रकार के कार्यों यथा सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सैनिक आदि को सम्पन्न करती थी | के.पी. जायसवाल इसे एक मौलिक बड़ी सभा मानते है | अल्तेकर के अनुसार यह विद्वानों की परिषद् थी जहाँ धार्मिक और दार्शनिक मुद्दों पर विचार-विमर्श होता था | रॉथ ने विदथ को सैनिक, असैनिक व धार्मिक कार्यों से सम्बद्ध माना है |

इस प्रकार ऋग्वैदिक कालीन राजव्यवस्था में सभा, समिति और विदथ सहायक के रूप में कार्य करती थी | 

इस प्रकार संक्षेप में, प्रारम्भिक वैदिक काल या ऋग्वैदिक काल की राजनीतिक दशा (राजव्यवस्था) कबायली थी | कबीले का मुखिया राजा होता था | राज्य राजतंत्रात्मक और गणतंत्रात्मक दोनों प्रकार के होते थे | राजा निरंकुश नही था, उसे महत्वपूर्ण विषयों पर कबायली संस्थाओं से सलाह लेनी पड़ती थी | राजा को अपनी प्रजा और विजित क्षेत्रों से बलि प्राप्त होती थी | उसे ईश्वर के प्रतिनिधि का दर्जा नही प्राप्त था, जैसा कि बाद के कालो में देखा गया | राजा को प्रशासन चलाने में कुछ अधिकारी (पुरोहित, सेनानी, ग्रामणी आदि) मदद करते थे | युद्ध में हाथियों का उपयोग प्रचलित नही था | वीर योद्धा अपनी रक्षा के लिए कवच भी धारण करते थे | सभा, समिति व विदथ को राजव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था |
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